बुधवार, 30 दिसंबर 2015

पूस के जड़काला

गली गली खोर खोर,बगरे हे चहूं ओर
धुंधरा हा जाड़ के गा अबड़ के छाये हे

सुरुर सुरुर धुंके,धुंकी तक बिहान ले
रोनिया तापत सरि बेरा हा पहाये हे

कटकट दांत करे,मुश्कुल बात करे
तात तात चाहा हा मन ला बड़ भाये हे

बिहना मंझान चहे,रतिहा संझान घलो
बुढ़ा जवान जमो गथरी मा लदाये हे

हाथ ला सेंके बर,जाड़ ला छेंके बर
घर के डेरवठी मा गोरसी दगाये हे

सबले सुहावन हे,पूस के गा जड़काला
कुनुन कुनुन जाड़ मन ला सुहाये हे।

रचना-  श्रवण साहू 'दुलरवा'
गांव -बरगा, जि.-बेमेतरा
मोबा.-8085104647

रविवार, 27 दिसंबर 2015

Shravan sahu

    मैं खुद ,खुद में 'मै' देखा हूँ।

             खुद को जलाने की 'शै' देखा हूँ।
                           - श्रवण

Gajal by Shravan sahu "dularva"

कुछ हंसी कुछ गम का पल हूं मैं
न समझ नादान बीता कल हूं मैं

सहज कैद हो जाता हूं पिजरों में
शायद दिलवालों से निर्बल हूं मैं

बनते उजड़ते हैं आशियानें अक्सर
बेअसर तन्हा शज़र अचल हूं मैं

थक जाओ ढूँढते वजह हालात की
सुलझाना मुझे उल्फतों का हल हूं मैं

अल्फाज़ों में राज शब्दों का साज
आशिकों का तराशा गज़ल हूं मैं
                 - श्रवण साहू

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

पत्रिका पहट मा प्रकाशित मोर रचना

जय गुरु घासीदास

गज़ल

तूमसे हमारी कैसी ये दूरी हैं,
कुछ मेरी, कुछ तेरी मजबूरी हैं।

तड़पाती बहुत है इंतज़ार तेरी
अधर सा मैं, जीवन भी अधूरी हैं।

हरपल मुस्कुराओ अच्छा है पर
थोड़ा तो रूठो ये भी तो जरूरी हैं।

दस्तूर समझना गर बिछड जायें
मिलें तो समझ,उनकी ही मंजूरी हैं।

अल्फाज़ सजाना बस में नही,मगर
नाम जो आये तेरी,गज़ल पूरी हैं।

         रचना-श्रवण साहू
       बरगा , बेमेतरा (छ.ग.)
       मोबा.~ 8085104647